वेब सीरीज़ ‘पंचायत’ का डायलॉग "देख रहा है बिनोद?" आज हर किसी की ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस किरदार को निभाने वाले अशोक पाठक कौन हैं? कहां से आए हैं? उनकी ज़िंदगी कैसी रही है?
इस सवाल का जवाब उतना ही दिलचस्प है जितना उनका किरदार। अशोक पाठक की कहानी एक आम लड़के की असाधारण यात्रा है — जो शुरू होती है रुई बेचते हुए, और पहुंचती है कान फिल्म फेस्टिवल तक।
शुरुआत: बिहार के एक साधारण परिवार से
अशोक पाठक का जन्म बिहार के सिवान ज़िले में हुआ। उनके माता-पिता बेहतर ज़िंदगी की तलाश में हरियाणा के फरीदाबाद चले आए। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनके पिता कम पढ़े-लिखे थे, और मजदूरी जैसे छोटे-मोटे काम करके घर चलाते थे।
अशोक घर का सबसे बड़ा बेटा था, जिससे उम्मीदें बहुत थीं — लेकिन उसकी दुनिया किताबों में नहीं, ज़िंदगी की सच्चाइयों में थी।
रुई बेचते-बेचते सीखी एक्टिंग
पढ़ाई में मन नहीं लगता था। एक समय ऐसा आया जब छोटे भाई की तबीयत खराब रहने लगी और घर में पैसे की तंगी बढ़ गई। अशोक ने एक रिश्तेदार के साथ रुई बेचने का काम शुरू किया।
इसी दौरान उन्होंने जाना कि लोगों को कुछ बेचने के लिए कैसे भावनाएं जगानी पड़ती हैं, कैसे चेहरे के भाव बदलने पड़ते हैं… और यही था उनका पहला एक्टिंग स्कूल।
"रुई बेचनी थी, तो कई बार लोगों से अलग-अलग तरह से बात करनी पड़ती थी… वही मेरी पहली एक्टिंग थी।"
सिनेमा का शौक और पिटाई
रुई बेचकर जो भी पैसे मिलते, उनका इस्तेमाल वह फिल्में देखने में करते। घरवालों को यह बात पसंद नहीं थी। एक बार तो पिता ने उन्हें पकड़कर मारा भी था क्योंकि उन्होंने स्कूल छोड़कर थिएटर का रुख़ कर लिया था।
लेकिन फिल्मों से लगाव बढ़ता गया। एक सपना बनने लगा – एक्टर बनने का सपना।
थिएटर और किताबों की ओर रुख़
12वीं किसी तरह पास की और दोस्तों के कहने पर ग्रेजुएशन में एडमिशन लिया। कॉलेज में एक नाटक की तैयारी के दौरान उन्हें साहित्य से लगाव हुआ। फिर तो दिन-रात लाइब्रेरी में किताबें पढ़ते और नाटकों में हिस्सा लेते।
वह कहते हैं,
"मुझे तब पहली बार लगा कि मैं जो पढ़ रहा हूं, वो मेरा अपना है।"
NSD से नकार, लेकिन हौसला बरकरार
दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) में दो बार कोशिश की, लेकिन दाख़िला नहीं मिला। इसने उन्हें तोड़ा जरूर, लेकिन तोड़ नहीं पाया।
इसके बाद उन्होंने भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ में दाखिला लिया और वहाँ से ट्रेनिंग लेने के बाद पहुंचे मुंबई, सपनों की नगरी।
संघर्ष के 12 साल
मुंबई में पहले कुछ काम मिला, लेकिन छोटे रोल — ड्राइवर, चौकीदार, ढाबे वाला...
बड़ी फिल्में मिलीं — बिट्टू बॉस, शंघाई, फोटोग्राफ, द सेकंड बेस्ट एग्जॉटिक मैरीगोल्ड होटल — लेकिन पहचान नहीं मिली।
फिर आया पंचायत — और आया बिनोद का किरदार, जिसने उन्हें लोगों के दिलों तक पहुंचा दिया।
"देख रहा है बिनोद?" और पहचान का असर
जब ‘देख रहा है बिनोद’ डायलॉग वायरल हुआ, तो लोग उन्हें पहचानने लगे।
लेकिन कुछ लोगों को लगा कि बिनोद सच में किसी गांव का मासूम लड़का है — वे मदद की पेशकश करने लगे।
अशोक बताते हैं,
"मुझे खुशी थी कि एक्टिंग इतनी नैचुरल लगी, लेकिन साथ ही लगता था कि शायद इसीलिए मुझे अब तक सीरियसली नहीं लिया गया।"
नई पहचान और नए किरदारों की उम्मीद
अब अशोक पाठक को लगातार बिनोद जैसे किरदार ऑफर हो रहे हैं। लेकिन वे खुद को सिर्फ एक किरदार में नहीं बांधना चाहते।
उनकी हालिया फिल्म ‘सिस्टर मिडनाइट’ कान फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित हो चुकी है।
संघर्ष से स्टारडम तक का सफ़र
अशोक पाठक की कहानी सिर्फ़ एक कलाकार की नहीं है,
ये कहानी है हर उस इंसान की, जो हालातों से हार नहीं मानता।
जो जानता है कि मंज़िल भले ही दूर हो, लेकिन अगर इरादे मजबूत हों तो रास्ते खुद बनते हैं।
"रुई बेचते-बेचते जो लड़का सपने देखता था… आज वही लड़का लाखों दिलों की स्क्रीन पर चमक रहा है।"