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क्या ढह गया सत्यजीत रे का बचपन? बांग्लादेश में एक घर पर उठा सवाल, इतिहास और विरासत की चिंता

Published on July 18, 2025 by Priti Kumari

 बांग्लादेश के एक शांत कस्बे की गलियों में बीते कुछ दिनों से हलचल है। वहां एक पुराना, जर्जर-सा घर है। दीवारें चूने और गारे की हैं, 40 सेंटीमीटर मोटी। छत से पलस्तर झड़ चुका है। लेकिन अब यह घर चर्चा के केंद्र में है—क्योंकि दावा किया गया कि यह सत्यजीत रे का पुश्तैनी घर है।

इसी दावे के साथ उठीं सैकड़ों आवाज़ें, सोशल मीडिया से लेकर भारत के विदेश मंत्रालय तक। भारत सरकार ने बांग्लादेश से गुज़ारिश की—"इसे मत ढहाइए, यह हमारी साझा विरासत है।" पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी अपील की—"रे परिवार बंगाली संस्कृति का गौरव है। इस घर को बचाइए।"

लेकिन सवाल अब भी वहीं है—क्या यह घर वाकई रे परिवार का है?

पुराने घर, मिटती यादें

हरिकिशोर रॉय रोड पर बना यह घर अब वीरान है। शिशु अकादमी ने इसे खतरनाक बताते हुए ढहाना शुरू कर दिया था। लेकिन मीडिया में खबरें आते ही सब कुछ रुक गया। जांच शुरू हुई।

पुरातत्व विभाग की अधिकारी सबीना यास्मीन कहती हैं, "इस घर की वास्तुकला की अहमियत है। चूने, गारे, और इतिहास से बनी इसकी दीवारें बस यूं ही नहीं गिराई जा सकतीं।"

उन्होंने बीबीसी को बताया, "हमने फेसबुक पोस्ट, पुरानी किताबें और लोककथाएं सब देखी हैं। संभव है कि यह रे परिवार की किसी शाखा का घर हो। लेकिन यह अब भी स्पष्ट नहीं है।"

किसका है यह घर?

यहीं आते हैं मैमनसिंह के पुरातत्व शोधकर्ता स्वप्न धर। उन्होंने दावा किया—"यह सत्यजीत रे का नहीं, बल्कि समाजसेवी रणदा प्रसाद साहा का अस्थायी निवास है।" उनके मुताबिक, रे परिवार का असली घर करीब 10 साल पहले ढहा दिया गया था।

उनका कहना है, "हमने 2010 में जर्मन शोधकर्ताओं के साथ सर्वे किया था। यह घर उस लिस्ट में रे परिवार के घर के रूप में दर्ज नहीं था।"

यह बयान जिला प्रशासन के साथ मेल खाता है। उपायुक्त मुफीदुल आलम ने स्पष्ट कहा—"जमीनी दस्तावेज़ों में कहीं रे परिवार का नाम नहीं है।" ज़मीन 2008 से ही बांग्लादेश सरकार के नाम है।

लेकिन भावनाएं कागज़ नहीं पढ़तीं…

सवाल सिर्फ दस्तावेज़ों का नहीं है। सवाल यह भी है कि जब कोई इमारत हमारे सांस्कृतिक अतीत से जुड़ी होती है, तब उसके पत्थरों में हमारी भावनाएं भी जुड़ जाती हैं।

उपेंद्र किशोर राय चौधरी, सत्यजीत रे के दादा, का बचपन इसी ज़िले के मसूआ गांव में बीता था। यही नाम जब रे की फिल्मों में संस्कार बनकर उभरा, तो लोगों को अपने अतीत पर गर्व हुआ।

भारत सरकार ने अपने बयान में कहा, "यह इमारत बंगाली सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है। इसे ढहाने के बजाय एक संग्रहालय के रूप में बचाया जाए। हम इसमें सहयोग करने को तैयार हैं।"

क्या सच मायने रखता है या यादें?

इतिहासकार मुंतशिर मामून कहते हैं, "हमारे पास इतने संसाधन नहीं कि हर मशहूर व्यक्ति का घर बचा सकें। कुछ तो समय की गर्द में खो ही जाएंगे।"

लेकिन सवाल फिर वहीं लौटता है—क्या ऐसे घरों को खोने देना चाहिए जो किसी पीढ़ी की यादें हैं? जो आने वाले बच्चों को यह बता सकते हैं कि सत्यजीत रे, सुकुमार रे, उपेंद्र किशोर जैसे लोग एक ज़माने में यहीं से चले थे?

फिलहाल क्या स्थिति है?

प्रशासन ने ढहाने का काम स्थगित कर दिया है। जांच जारी है। पुरातत्व विभाग सर्वे कर रहा है। लेकिन वक्त कम है—क्योंकि इतिहास चुपचाप मिट जाता है, अगर हम समय पर उसकी रक्षा न करें।

Categories: अंतरराष्ट्रीय समाचार