पटना हाईकोर्ट ने बिहार सरकार के 65% आरक्षण फैसले को खारिज किया

पटना हाईकोर्ट ने बिहार सरकार के उस फैसले को खारिज कर दिया है जिसमें आरक्षण सीमा बढ़ाने का निर्णय लिया गया था। राज्य सरकार ने शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति-जनजाति, अत्यंत पिछड़ा वर्ग और अन्य पिछड़े वर्गों को 65 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की थी, जिसे अदालत में चुनौती दी गई थी।

गौरव कुमार और अन्य द्वारा दायर याचिकाओं पर हाईकोर्ट ने सुनवाई पूरी करने के बाद फैसला सुनाया। 11 मार्च 2024 को सुनवाई पूरी हुई थी और आज चीफ जस्टिस के वी चंद्रन की खंडपीठ ने इस पर निर्णय दिया।

हाईकोर्ट ने यह निर्णय क्यों लिया, इसे समझें

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुसार आरक्षण सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व पर आधारित होना चाहिए, न कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर। उन्होंने कहा कि बिहार सरकार का यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 16(1) और 15(1) का उल्लंघन करता है। अनुच्छेद 16(1) सरकारी नौकरियों में सभी नागरिकों के लिए समानता का अवसर प्रदान करता है और अनुच्छेद 15(1) भेदभाव पर रोक लगाता है।

नीतीश कुमार ने 7 नवंबर 2023 को विधानसभा में घोषणा की थी कि सरकार आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत करेगी। इसके बाद कैबिनेट की बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी और 9 नवंबर को इसे विधानमंडल के दोनों सदनों से पारित कर दिया गया था।

21 नवंबर 2023 को बिहार में आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 75 प्रतिशत कर दी गई थी, जिसमें एससी-एसटी, ईबीसी और ओबीसी को 65 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान शामिल था। यह प्रावधान राज्य के बजट प्रकाशित होने के बाद लागू हुआ था।

पटना हाईकोर्ट ने 1 दिसंबर 2023 को आरक्षण पर रोक लगाने की मांग को अस्वीकार कर दिया था। अदालत ने राज्य सरकार को 12 जनवरी तक जवाब देने का निर्देश दिया था। याचिकाकर्ता ने नए आरक्षण बिल को गैर-संवैधानिक बताते हुए उस पर रोक लगाने की मांग की थी, लेकिन अदालत ने इसे अस्वीकार कर दिया और सरकार से जवाब दाखिल करने का आदेश दिया।

याचिकाकर्ताओं का कहना था कि राज्य सरकार ने जाति आधारित गणना के आधार पर आरक्षण बढ़ाया, जबकि इसे सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर बढ़ाना चाहिए था। उन्होंने इस निर्णय को समानता के अधिकार का उल्लंघन बताया।

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